आप ही बताइये, किसे “देश का गौरव” कहें?
०प्रतिदिन विचार -राकेश दुबे
कल भी संसद नहीं चली, आज चलेगी या नहीं कोई नहीं कह सकता और संसद में बैठेने वाले लोगों को देश के गौरव की चिंता हो रही है। पूरी दुनिया देख रही है, विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र क्या हाल है? क्या देश का अपमान मात्र यह कहने से ही हो जाता है कि हमारे यहां जनतांत्रिक परंपराओं को तोड़ा जा रहा है? यदि ऐसा कहने मात्र से देश का अपमान होता है, तो इसके लिए दोषी वे हैं जिनके कंधों पर हमने इन परंपराओं के पालन की ज़िम्मेदारी सौंपी है, उन्हें चुनाव जिताकर इन सदनों में भेजा है।
सही अर्थों में देश और जनतंत्र का अपमान बातों से होता है उनमें ग़रीबी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार के मुद्दे भी आते हैं। आज यह भी हकीकत है कि देश की अस्सी करोड़ जनता को मुफ्त खाद्यान्न देना पड़ रहा है?यहाँ यह सवाल भी उठता है कि देश की अस्सी करोड़ आबादी की स्थिति ऐसी क्यों हो गयी कि उसे दो समय के भोजन के लिए सरकारी अनुकंपा पर जीना पड़ रहा है? सरकार ज़रूरतमंद को खाद्यान्न दे रही है, अच्छी बात है, पर इस सवाल का जवाब भी तो किसी को देना होगा ? आज कोई इस स्थिति को उजागर करता है तो इसे देश के अपमान की कोशिश क्यों कही जा रही है?
देश अपमानित होता है जब यह बात सामने आती है कि कथित कोशिशों के बावजूद बेरोज़गारी कम नहीं हुई। महंगाई को कम करने में विफलता भी देश को बदनाम करती है। देश तब भी बदनाम होता है जब धर्म के नाम पर दंगे भड़काये जाते हैं, देश तब भी बदनाम होता है जब जाति के नाम पर वोट मांगे जाते हैं। जनता का विश्वास जनतंत्र की सबसे बड़ी ताकत होती है। यह विश्वास बना रहे इसके लिए ज़रूरी है जनता को भरमाने की कोशिशें बंद हों।
हाल ही में एक पत्रिका द्वारा किए गये सर्वेक्षण के अनुसार देश की सबसे बड़ी समस्या बेरोज़गारी है। दूसरे नंबर पर महंगाई आती है। तीसरा स्थान गरीबी का है और फिर नंबर आता है भ्रष्टाचार का। यह सारी समस्याएं ऐसी हैं जिनका बने रहना राष्ट्रीय शर्म का विषय होना चाहिए। सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग भी इसका अगला पायदान है। वैसे जनतंत्र के औचित्य तथा सफलता का तकाज़ा है कि गरीबी कम हो, महंगाई कम हो, बेरोज़गारी कम हो, सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग कम हो। यह तभी संभव है जब इस बात को बार-बार उजागर किया जाये। बार-बार इस बात को सामने लाने की जरूरत है कि जनतंत्र के मूल्यों-आदर्शों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए।
सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग का मुद्दा आज कुछ ज़्यादा मुखर होकर सामने आ रहा है। यह सामान्य स्थिति नहीं है। इन एजेंसियों की सक्रियता की प्रशंसा होनी चाहिए, पर जब यह पता चलता है कि 95 प्रतिशत छापे दोष दिखाने वालों पर पड़ रहे हैं तो संदेह होना स्वाभाविक है। इसमें एक महत्वपूर्ण बात यह है जब दल बदलने वाले नेताओं की हो रही छानबीन ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है । इस तरह की बातें हमारे जनतंत्र को, हमारे देश को बदनाम करती हैं।
याद आती है सत्यजीत रे की एक फिल्म जिसे अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। फिल्म किसी ऐसी कहानी पर आधारित थी जिसमें गरीबी का चित्रण था। तब देश में एक वर्ग को इस बात से शिकायत थी कि सत्यजीत रे जैसे फिल्मकार भारत की गरीबी को बेचते हैं! वे भारत को बदनाम कर रहे हैं!यह सोच तब भी ग़लत थी और आज भी ग़लत है।
देश यदि तब अपमानित हुआ था तो गरीबी के कारण हुआ था, न कि गरीबी के चित्रण से। लगभग आधी सदी पहले जब आपातकाल लगाया गया था, तब हमारा जनतंत्र अपमानित हुआ था। आज भी जब जनतांत्रिक मूल्यों को नकारा जा रहा है और संसद में या सड़क पर जनता की आवाज़ को दबाने की कोशिश होती है, तब जनतंत्र बदनाम होता है। छिपा देने से गंदगी साफ नहीं होती , उसे साफ़ करना होता है। इसके लिए पहले “गंदगी है” को स्वीकार करना पड़ता है।