कर्नाटक : भाजपा की राह आसान नहीं
०प्रतिदिन विचार राकेश दुबे
कर्नाटक में चुनावी रणभेरी बज गई है, राजनीति की बिसातें बिछ चुकी हैं। चुनाव की घोषणा से ठीक पहले प्रधानमंत्री लंबी-चौड़ी घोषणाएं कर चुके हैं। उनका भारी-भरकम रोड शो सुर्खियों में है। जिसमें इस 224 सदस्यों वाली विधानसभा के परिणाम जल्दी पाने की आकांक्षा नजर आती है।
कार्यक्रम के अनुसार एक ही दिन दस मई को पूरे कर्नाटक में चुनाव होंगे और महज तीन दिन बाद विधानसभा चुनाव का परिणाम देश के सामने होगा। दक्षिण भारत में भाजपा के इस अकेले दुर्ग में भले ही उसकी पार्टी की सरकार है, लेकिन इसे हासिल करने के तमाम दांव-पेच सबने देखे हैं, लेकिन कर्नाटक चुनाव के भाजपा व अन्य राजनीतिक दलों के लिये खास मायने हैं। एक तो ये 2024 के महासमर से पहले होने वाले चुनाव होंगे, दूसरे चुनाव के बाद राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में इस साल होने वाले चुनाव के लिये सभी दल अपनी-अपनी सुविधा से कर्नाटक चुनाव परिणामों की व्याख्या भी करेंगे।
सत्तारूढ़ भाजपा की प्रतिष्ठा तो इस चुनाव में दांव पर लगी ही है, कांग्रेस की प्रतिष्ठा का भी यहां बड़ा सवाल है। वजह यह है कि गांधी परिवार से अलग बाहर से चुने गये राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का भी यह गृह राज्य है। अत: चुनाव परिणामों से उनके नेतृत्व की भी प्रतिष्ठा तय की जायेगी। बहरहाल, भाजपा को सत्ता के खिलाफ होने वाले प्रतिरोध का सामना तो करना ही पड़ेगा। पार्टी ने कुछ समय पहले राज्य में नेतृत्व परिवर्तन करके यह संदेश देने का प्रयास किया कि राज्य में साफ-सुथरा शासन दिया जा रहा है। इसके बावजूद पार्टी ने साम-दाम-दंड-भेद के जरिये फिर से सत्ता में लौटने के लिये पूरा जोर लगाया है। राज्य की राजनीति में दमदार दखल रखने वाले दो बड़े व प्रभावशाली जातीय समूह लिंगायतों व वोक्कालिंगा को साधने के लिये एड़ी-चोटी का जोर भी लगाया है। इतना ही नहीं, कई विवादों के चलते जिन येदियुरप्पा की मुख्यमंत्री पद से विदाई की गई थी, उन्हें फिर सम्मान देकर उनका कद भी बढ़ाया गया है। वे विगत में भी पार्टी के जातिगत समीकरण साधने में मददगार रहे हैं।
मतदाताओं के बीच उठने वाले धार्मिक-सांप्रदायिक विवादों के अपने रंग नजर आ रहे हैं। तुष्टीकरण की नीति के बीच अल्पसंख्यकों को मिलने वाले चार फीसदी आरक्षण को भी खत्म किया गया है, जिसको लेकर राज्य में कई आंदोलन भी हुए हैं। बहरहाल, भाजपा प्रधानमंत्री व केंद्रीय मंत्रियों के जरिये तमाम घोषणाओं से पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने में जुटी है। अब देखना होगा कि 150 सीटें जीतने का दावा करने वाली भाजपा चुनावी समर में कितनी कामयाबी हासिल कर पाती है। वहीं विपक्ष भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर हमलावर है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि भारत जोड़ो पदयात्रा के दौरान राजनीतिक निहितार्थों के चलते राहुल गांधी ने कर्नाटक को खासी तरजीह दी है, जिसका उन्हें सकारात्मक प्रतिसाद भी मिला। परंपरागत रूप से कर्नाटक कांग्रेस का गढ़ रहा है। भाजपा के तमाम विस्तार के बावजूद यहां कांग्रेस का मत प्रतिशत बरकरार रहा है।
अब देखना होगा कि राहुल गांधी को मानहानि मामले में सज़ा, संसदीय सदस्यता खत्म करने तथा सरकारी आवास वापस लेने के मुद्दे को किस हद तक कांग्रेस भुनाने में सफल रहती है। वहीं कांग्रेस ने राज्य में मुस्लिम आरक्षण बहाली का वादा भी अल्पसंख्यक मतों के ध्रुवीकरण के लिये किया है। निस्संदेह, राज्य की सत्ता में वापसी के लिये भाजपा की राह आसान नहीं है। राज्य में जेडीएस का भी खासा दखल रहा है। जो करीब पिछले दो दशक से राज्य में आने वाले खंडित जनादेश के वक्त निर्णायक भूमिका निभाता रहा है। राज्य में सत्ता के त्रिकोण में दखल रखने वाली जेडीएस इस बार भी दमखम के साथ मैदान में है। कुमारस्वामी की कोशिश यही रहेगी कि त्रिशंकु स्थिति में सत्ता की चाबी उनकी पार्टी के ही हाथ में रहे, जैसा कि पिछले विधानसभा चुनाव में हुआ था। इसके बावजूद मतदाताओं से ही उम्मीद की जानी चाहिए कि वे राज्य को राजनीतिक अस्थिरता से बचाने के लिये स्पष्ट जनादेश दें।